Saturday, July 25, 2020

26 जुलाई : ज़रा याद करो रण बाँकुरो की कुर्बानी

कारगिल विजय दिवस

हर साल कारगिल युद्ध के नायकों के सम्मान में 26 जुलाई मनाया जाता :




कारगिल विजय दिवस स्वतंत्र भारत के सभी देशवासियों के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण दिवस है। भारत में प्रत्येक वर्ष 26 जुलाई के दिन यह मनाया जाता है। भारत और पाकिस्तान की सेनाओं के बीच वर्ष 1999 में कारगिल युद्ध लगभग 60 दिनों तक चला और 26 जुलाई के दिन उसका अंत हुआ और इसमें भारत विजय हुआ। कारगिल विजय दिवस युद्ध में शहीद हुए भारतीय जवानों के सम्मान हेतु मनाया जाता है।[1]

1971 के भारत-पाक युद्ध के बाद भी कई सैन्य संघर्ष होता रहा। दोनों देशों द्वारा परमाणु परीक्षण के कारण तनाव और बढ़ गया था। स्थिति को शांत करने के लिए दोनों देशों ने फरवरी 1999 में लाहौर में घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर किए। जिसमें कश्मीर मुद्दे को द्विपक्षीय वार्ता द्वारा शांतिपूर्ण ढंग से हल करने का वादा किया गया था। लेकिन पाकिस्तान ने अपने सैनिकों और अर्ध-सैनिक बलों को छिपाकर नियंत्रण रेखा के पार भेजने लगा और इस घुसपैठ का नाम "ऑपरेशन बद्र" रखा था। इसका मुख्य उद्देश्य कश्मीर और लद्दाख के बीच की कड़ी को तोड़ना और भारतीय सेना को सियाचिन ग्लेशियर से हटाना था। पाकिस्तान यह भी मानता है कि इस क्षेत्र में किसी भी प्रकार के तनाव से कश्मीर मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बनाने में मदद मिलेगी।

प्रारम्भ में इसे घुसपैठ मान लिया था और दावा किया गया कि इन्हें कुछ ही दिनों में बाहर कर दिया जाएगा। लेकिन नियंत्रण रेखा में खोज के बाद और इन घुसपैठियों के नियोजित रणनीति में अंतर का पता चलने के बाद भारतीय सेना को अहसास हो गया कि हमले की योजना बहुत बड़े पैमाने पर किया गया है। इसके बाद भारत सरकार ने ऑपरेशन विजय नाम से 2,00,000 सैनिकों को भेजा। यह युद्ध आधिकारिक रूप से 26 जुलाई 1999 को समाप्त हुआ। इस युद्ध के दौरान 550 सैनिकों ने अपने जीवन का बलिदान दिया और 1400 के करीब घायल हुए थे ।

 "२६ जुलाई २०१४ को इंडिया गेट पर स्थित अमर जवान ज्योति पर कारगिल की पंद्रहवी वर्षगांठ मनाई गई।"


कारगिलयुद्ध के नायकों की kकहानियां :

कारगिल में बर्फीले पहाड़ की चोटियां। शत्रु घात लगाए बैठा था। लगभग 1800 फुट ऊपर पहाड़ियों में छिपा दुश्मन भारतीय जांबाजों को रोकने की हर संभव कोशिश कर रहा था। लेकिन हमारे जांबाज प्राणों की परवाह किए बिना बढ़ते रहे। अपनी बहादुरी का परचम दिखाते हुए दुश्मानों को पीठ दिखाकर भागने पर मजबूर कर दिया। कारगिल पर फतह हासिल कर दुनाया को संदेश दिया कि हमसे टकराने वाले मिट्टी में मिल जाएंगे। वर्ष 1999 के उस रण में राजधानी के कई जांबाज शहीद हुए। उन्होंने देश की रक्षा में अपना सर्वोच्च बलिदान दिया। 

सिर में लगी गोली भी कैप्टन मनोज पाण्डेय को न डिगा सकी
कारगिल की जब्बार पहाड़ी पर कब्जा, बटालिक सेक्टर से घुसपैठियों को खदेड़ने व कई अन्य आपरेशन को सफलता पूर्वक अंजाम पहुंचाने के बाद कैप्टन मनोज पाण्डेय को खालुबार पर विजय हासिल करने की जिम्मेदारी दी गई। वर्ष 1999 में 2/3 जुलाई की रात धावा बोलकर दुश्मनों के दो ठिकानों को ध्वस्त कर दिया। तीसरे ठिकाने को नष्ट करते समय उनका कंधा व पैर जख्मी हो गया। जख्मों की परवाह किए बिना अपने साथियों के साथ उन्होंने चौथे ठिकाने पर धावा बोल दिया। तभी दुश्मनों की एक गोली उनके सिर को भेदते हुए पार निकल गई। इसके बावजूद उन्होंने अनन्य साहस दिखाते हुए ग्रेनेड से हमला कर चौथा ठिकाना भी नष्ट कर दिया और खालुबार पर कब्जा कर लिया। इस पराक्रम में बुरी तरह घायल हो गए और 3 जुलाई को ही वह वीरगति को प्राप्त हो गए।

कारगिल में बर्फीले पहाड़ की चोटियां। शत्रु घात लगाए बैठा था। लगभग 1800 फुट ऊपर पहाड़ियों में छिपा दुश्मन भारतीय जांबाजों को रोकने की हर संभव कोशिश कर रहा था। लेकिन हमारे जांबाज प्राणों की परवाह किए बिना बढ़ते रहे। अपनी बहादुरी का परचम दिखाते हुए दुश्मानों को पीठ दिखाकर भागने पर मजबूर कर दिया। कारगिल पर फतह हासिल कर दुनाया को संदेश दिया कि हमसे टकराने वाले मिट्टी में मिल जाएंगे। वर्ष 1999 के उस रण में राजधानी के कई जांबाज शहीद हुए। उन्होंने देश की रक्षा में अपना सर्वोच्च बलिदान दिया। 

सिर में लगी गोली भी कैप्टन मनोज पाण्डेय को न डिगा सकी
कारगिल की जब्बार पहाड़ी पर कब्जा, बटालिक सेक्टर से घुसपैठियों को खदेड़ने व कई अन्य आपरेशन को सफलता पूर्वक अंजाम पहुंचाने के बाद कैप्टन मनोज पाण्डेय को खालुबार पर विजय हासिल करने की जिम्मेदारी दी गई। वर्ष 1999 में 2/3 जुलाई की रात धावा बोलकर दुश्मनों के दो ठिकानों को ध्वस्त कर दिया। तीसरे ठिकाने को नष्ट करते समय उनका कंधा व पैर जख्मी हो गया। जख्मों की परवाह किए बिना अपने साथियों के साथ उन्होंने चौथे ठिकाने पर धावा बोल दिया। तभी दुश्मनों की एक गोली उनके सिर को भेदते हुए पार निकल गई। इसके बावजूद उन्होंने अनन्य साहस दिखाते हुए ग्रेनेड से हमला कर चौथा ठिकाना भी नष्ट कर दिया और खालुबार पर कब्जा कर लिया। इस पराक्रम में बुरी तरह घायल हो गए और 3 जुलाई को ही वह वीरगति को प्राप्त हो गए।

सुनील जंग को बचपन से दुश्मनों से लोहा लेने का शौक था
गोरखा रेजीमेंट में राइफलमैन सुनील जंग को दुश्मनों से लोहा लेने का शौक बचपन से था। वर्ष 1995 में मात्र 16 वर्ष की उम्र में वह सेना में भर्ती हो गए। जज्बे के कारण ट्रेनिंग के दौरान कई मेडल जीता। छुट्टयों में घर आने पर मां से कहता था कि वहां रोज बम गिरता है। बहुत मजा आता है। ऐसा लगता है जैसे हर दिन दीवाली हो। मई 1999 में सुनील व उसके रीजीमेंट को कारगिल सेक्टर में पहुंचने का अदेश मिला। सुनील व उसके साथियों ने डटकर दुश्मनों का मुकाबला किया। सुनील ने अदम्य साहस का परिचय देते हुए एक-एक करके दुश्मनों पर 25 बम फोड़े जिससे दुश्मनों के हौसले पस्त हो गए। इस दौरान एक गोली सुनील जंग के चेहरे पर लगी जो सिर को पार करते हुए निकल गई। बचपन का सपना पूरा करते हुए वह 15 मई को शहीद हो गए।

घायल होने के बाद भी मेजर रितेश शर्मा ने दुश्मनों से मोर्चा लिया
बचपन से सेना में जाने को इच्छुक मेजर रितेश शर्मा ने वर्ष 1995 में कमीशन प्राप्त किया। उन्हें मई 1999 में कारगिल के मश्कोह घाटी से दुश्मनों को भगाने का आदेश मिला। उन्होंने अपनी यूनिट 17 जाट बटालियन के साथ भीषण हमला करके घुसपैठियों को मार भगाया और चोटी पर कब्जा कर लिया। इस सफलता पर उनकी यूनिट को मश्कोह रक्षक की उपाधि दी गई। इस दौरान सात जुलाई को वह घायल हो गए थे। जख्मों की परवाह किए बिना दस दिन बाद ही वह फिर युद्ध में शामिल हो गए। कश्मीर के कुपावाड़ा सेक्टर में कई आतंकवादियों व घुसपैठियों को मार गिराया। 25 सितम्बर को वह जख्मी होकर 200 मीटर गहरी खाई में गिर गए। उन्हें सेना के उत्तरी कमान अस्पताल में भर्ती कराया गया। लगातार 11 दिनों तक मृत्यु से संघर्ष किया। उन्होंने 6 अक्टूबर 1999 को वीरगति प्राप्त किया।

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